क्रोध बहुत बुरी बात है । कभी भी किसी को क्रोध नहीं करना चाहिये ।
यहाँ मैं दो स्थितियों का वर्णन करूँगा , एक स्थिति में क्रोध और क्रोध करने वाली की गति और दूसरी स्थिति में क्रोध और क्रोध न करने वाली की गति ।
पंचवटी में राम, सीता , और लक्ष्मण कुटी बनाकर रह रहे थे । जंगल का ये इलाका गिद्गराज जटायु का जाना पहचान था , अतः दूर से ही उनकी की नज़रें हमेशा राम ,सीता और लक्ष्मण की सुरक्षा पर टीकी रहती थीं । अचानक उन्हें रावण का पुष्पक विमान उस इलाके में दिखाई दिया । रावण के स्वभाव से जटायु राज भली भांति परिचित थे । अतः वे सीता की सुरक्षा के लिये विशेष सावधान हो गये । किसी पहाड़ी की ऊंची छोटी पर बैठे उन्होंने देखा कि रावण के चंगुल में फंसी सीता उसके पुष्पक विमान में विलख और छटपटा रहीं थीं । गिद्धराज जटायु ने क्रोध में आग बबूला हो , जनक नन्दिनी को मुक्त करने का रावण को आदेश दिया । रावण के नहीं मानने पर उन्होंने कहा, “यद्यपि मैं बूढ़ा हो गया हूं , फिर भी मैं तुम्हें जिन्दा रहते , जनकनंदिनी को यहां से ले जाने नहीं दूंगा “। और फिर उसके बाद गिद्धराज जटायु और रावण का जो युद्ध हुआ उससे हम सभी परिचित है ।
रावण इस भीषण युद्ध में जटायु पर भारी पड़ा और उसने जटायु के पंखों को काट डाला । बेचारे जटायु जमीन पर अर्धमूर्छित अवस्था में गिर पड़े और ईश्वर से यही प्रार्थना करते रहे कि , उनकी सांस तब तक बनी रहे , जब तक वे राम को सीता हरण का समाचार न दे दें ।
राम लक्ष्मण जंगल में सीता को खोजते हुए उधर आये । उनलोगों ने इधर-उधर खून के कुछ छीटें देखे और उन खून के धब्बों की तरफ आगे बड़ने पर खून से लथ-पथ जटायु को देखा । राम ने जटायु को तुरन्त अपनी गोद में लिया और लक्ष्मण को कुछ जड़ी -बूटी लाने का आदेश दिया । दर्द से तड़पते हुये जटायु ने राम से कहा , “राम मेरे जाने का समय हो गया है, मेरी साँसे इसीलिये टिकी हुई थीं, जिससे कि मैं आपको यह बता सकूँ , ” जनकनंदिनी को रावण उठाकर दक्षिण दिशा की तरफ ले गया है । मैंने सीता को बचाने की बहुत कोषिष की । परन्तु रावण इस बूढ़े गिद्ध पर भारी पड़ा और मैं जनकनंदिनी को बचा नहीं सका “।
जटायु ने राम की गोद में ही दम तोड़ दिया । राम ने लक्ष्मण को लकड़ी इकठा करने का आदेश दिया और स्वयं अपने हाथों जटायु का दाह-संस्कार किया ।
जटायु के क्रोध का फल देखये , एक अवतारी पुरुष की गोद में प्राण त्यागना और अवतारी पुरुष के हाथों दाह संस्कार । आप अठारहों पुराण पढ़ लीजिये , सारे धर्मग्रंथों को पढ़ लीजिये , ये कहीं नहीं पायेंगें कि किसी अवतारी पुरुष ने अपने पिता का दाह संस्कार किया हो ।
जटायु के “क्रोध” ने उन्हें उस जगह पहुंच दिया , जिस जगह पर ऋषि मुनि भी जन्मों की तपस्या के बाद नहीं पहुँच पाते ।
दूसरा दृष्य , जिसमे क्रोध नहीं किया गया :-
धृतराष्ट्र की भरी सभा , भीष्म से लेकर सभी बुजुर्ग महारथी और पूज्यजन , सर निचे किये , द्रौपदी का चिर हरण देखते रहे । अबला नारी सभी से अपनी इज्जत की भीख मांगती रही । आर्यावर्त के उस समय के सबसे बड़े और शक्तिशाली पुरुष भीष्म अपनी ही पौत्रबधु की इज़्ज़त की धज्जियां उड़ते देख रहे थे । चुप रहने का कारण चाहे जो कुछ भी रहा हो , परन्तु यदि उन्होंने उस क्षण झूठ-मूठ का भी क्रोध किया होता , सभा में उपस्थित अपने दुष्ट पोतों को डांटा भी होता , तो शायद महाभारत का रण नहीं हुआ होता ।
और उस दिन भीष्म के क्रोध न करने का फल भीष्म को मिला , छे महीने तक वाणों के सर सैया , वाणों की सेज पर पड़े रहने का फल ।
जटायु ने उचित समय पर क्रोध किया और भीष्म ने उचित समय पर क्रोध नहीं किया । दोनों को फल मिला , परन्तु अलग अलग ।