महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामाह ने यह शर्त रखी थी की जब तक वह कौरवों के प्रधान सेनापति है तब तक कर्ण कौरवों के पक्ष से युद्ध में हिस्सा नहीं ले सकतेl भीष्म पितामह की इस शर्त के कारण विवश कर्ण अपने पड़ाव में बैठे युद्ध का समाचार सुनते रहते और छटपटाते रहते थेl
जब अर्जुन के प्रहारों से भीष्म पितामह बाणों के शरशय्या पर पड़ गए तब गुरु द्रोण कौरव सेना के प्रधान सेनापति हुए तथा दुर्योधन के कहने पर गुरु द्रोण ने कर्ण को इस युद्ध में हिस्सा लेने की आज्ञा दे दीl अब कर्ण भी युद्ध में शामिल हो चुके थे और महाभारत का यह युद्ध अपनी चरम सीमा पर थाl
भगवान श्री कृष्ण हर समय यह प्रयास करने की कोशिश करते कि युद्ध में कहीं अर्जुन और कर्ण का एक दूसरे से सामना ना हो जाएl एक बार कुरुक्षेत्र में अर्जुन और कर्ण का एक दूसरे से सामना हो ही गया तथा दोनों एक दूसरे पर तीरों की वर्षा करने लगेl कर्ण अब अर्जुन पर हावी होने लगे थेl कर्ण ने अर्जुन पर अनेक तेज बाणों से प्रहार करना शुरू कियाl कर्ण का जब एक भयंकर आघात अर्जुन पर आया तो श्री कृष्ण ने अपना रथ नीचे कर दियाl
कर्ण का वह बाण अर्जुन के मुकुट के ऊपरी हिस्से को काटता हुआ निकला और आश्चर्य की बात तो यह थी की वह बाण वापस कर्ण के तरकस में आ गया तथा क्रोधित होकर कर्ण से तर्क-वितर्क करने लगाl
कर्ण के द्वारा छोड़ा गया वह बाण क्रोधित अवस्था में कर्ण के तरकस में वापस आया था बोला- कर्ण अबकी बार जब तुम अर्जुन पर निशाना साधो तो ध्यान रहे कि निशाना अचूक होना चाहिए. अगर में लक्ष्य पर लग गया तो हर हाल में अर्जुन मृत्यु को पा जाएगा तथा उसकी रक्षा किसी भी हालत में नहीं हो सकती. इस बार पूरा प्रयत्न करो तुम्हारी प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्ण होगी.
कर्ण ने जब यह सुना तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ तथा उन्होंने उस बाण से उसका परिचय पूछा व बोले मेरा अर्जुन के वध करने का संकल्प लेने के पीछे कई कारण है परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आखिर आप के मन में अर्जुन के वध को लेकर इतनी प्रबल इच्छा क्यों है ?
कर्ण के यह पूछने पर उस बाण में से एक सर्प प्रकट हुआ, वास्तविकता में उस बाण में एक सर्प का वास थाl उसने कर्ण को अर्जुन से द्वेष रखने का कारण बताते हुए एक कथा सुनाई l
सर्प बने बाण ने अपना परिचय देते हुए कहा, हे ! वीर मैं कोई साधारण तीर नहीं हूँ, मैं महासर्प अश्वसेन हूँ. अर्जुन से प्रतिशोध लेने के लिए मेने बहुत लम्बी साधना और प्रतीक्षा कर रखी है इसलिए आज मैं तुम्हारी तरकश में हूँ क्योकि एक तुम ही हो जिसमे अर्जुन से समाना करने का सामर्थ्य है.
अर्जुन ने एक बार खांडव वन में आग लगा दी थी. आग इतनी प्रचण्ड थी कि उस आग ने वन में सब कुछ जलाकर राख कर दिया थाl उस वन में मैं अपने परिवार के साथ रहता था तथा उस प्रचण्ड अग्नि ने मेरे पूरे परिवार को जला दिया व मैं उनकी रक्षा नहीं कर पायाl
इसके प्रतिशोध के लिए मेने बहुत लम्बी प्रतीक्षा की है l तुम सिर्फ ऐसा करो कि मुझे अर्जुन के शरीर तक पहुंचा दो इसके आगे का शेष कार्य मेरा घातक विष कर देगाl
उस ने सर्प से कहा हे ! मित्र मैं आपकी भावनाओ का सम्मान करता हूँ परन्तु मैं यह युद्ध अन्य साधन के साथ नहीं बल्कि अपने पुरुषार्थ व नैतिकता के रास्ते पर चलकर जितना चाहता हूँ.
मैं दुर्योधन के पक्ष से युद्ध में खड़ा हूँ किन्तु इसका यह अभिप्राय न निकाले कि मैं सदैव अनीति का साथ दूंगा, यदि नीति के रास्ते पर चलते हुए अर्जुन मेरा वध भी कर दे तो मैं हँसते हँसते मृत्यु को गले लगा लूंगा परन्तु यदि अनीति के राह पर चलते हुए मैं अर्जुन का वध करू तो यह मुझे बिलकुल भी स्वीकार नहीं हैl
अश्वसेन ने बोला कि हे ! वीर तुम में एक सच्चे योद्धा की विशेषता है अतः मेरी नजर में तुम अभी से विजय हो चुके होl यदि तुम ने अपने जिंदगी में कोई अनीति का कार्य किया भी तो वह तुम्हारी असंगति का कारण थाl यदि आप इस युद्ध में पराजित भी होते हो तो भी आपकी कीर्ति बनी रहेगी.
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