Hindi Story -श्री कृष्ण – जांबवती – Krishna – Jambavati

श्री कृष्ण – जांबवती

बहुत पहले द्वारका पुरी में भोजवंशी राजा सत्राजित रहता था। सूर्य की भक्ति-आराधना के बल पर उसने स्वमंतक नाम की अत्यंत चमकदार मणि प्राप्त की। मणि की क्रांति से राजा स्वयं सूर्य जैसा प्रभा-मंडित हो जाता था। इस भ्रम में जब यादवों ने श्रीकृष्ण से भगवान सूर्य के आगमन की बात कही, तब अंतर्यामी कृष्ण ने यादवों की शंका का निवारण करते हुए कहा कि आने वाले महानुभाव स्वमंतक मणिधारी राजा सत्राजित हैं, सूर्य नहीं। स्वमंतक मणि का गुण था कि उसको धारण करने वाला प्रतिदिन आठ किलो स्वर्ण प्राप्त करेगा। उस प्रदेश में किसी भी प्रकार की मानवीय या दैवीय विपत्ति का कोई चिह्न तक नहीं था। स्वमंतक मणि प्राप्त करने की इच्छा स्वयं कृष्ण ने भी की लेकिन सत्राजित ने अस्वीकार कर दिया।

Unknown facts about Lord Krishna

एक बार सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को धारण करके घोड़े पर चढ़कर शिकार को गया तो एक सिंह ने उसे मार डाला। संयोग से जामवंत नामक रीछ ने सिंह को ही मार डाला और वह मणि को लेकर अपनी गुफा में आ गया। जामवंत की बेटी मणि को खिलौना समझकर खेलने लगी। प्रसेनजित के न लौटने पर द्वारका में यह अफवाह फैल गई कि कृष्ण को सत्राजित द्वारा मणि देने से इनकार करने पर दुर्भावनावश कृष्ण ने प्रसेनजित की हत्या करा दी और मणि पर अपना अधिकार कर लिया। कृष्ण इस अफवाह से दु:खी होकर प्रसेनजित को खोजने के लिए निकल पड़े। वन में कृष्ण और उनके साथियों ने प्रसेनजित के साथ एक सिंह को भी मरा पाया। उन्हें वहां रीछ के पैरों के निशानों के संकेत भी मिले, जो भीतर गुफा में प्रवेश के सूचक थे। इससे कृष्ण ने सिंह को मारने तथा मणि के रीछ के पास होने का अनुमान लगाया।

Lord Krishna - Syamantaka Jewel and his marriage to Jambavati

अपने साथियों को बाहर रहकर प्रतीक्षा करने के लिए कहकर स्वयं कृष्ण गुफा के भीतर प्रवेश कर गए। काफी समय बाद भी कृष्ण के वापस न आने पर निराश होकर लौटे साथी ने कृष्ण के भी मारे जाने का मिथ्या प्रचार कर दिया। कृष्ण के न लौटने पर उनके पिता वसुदेव पुत्र-शोक में व्यथित हो उठे। उसी समय महर्षि नारद आ गए। समाचार जानकर नारदजी ने वसुदेव से श्रीमद् देवी भागवत पुराण के श्रवण का उपदेश दिया। वसुदेव मां भगवती की कृपा से पूर्व परिचित थे। उन्होंने नारदजी से कहा-देवर्षि, देवकी के साथ कारागारवास करते हुए जब छ: पुत्र कंस के हाथों मारे जा चुके थे तो हम दोनों पति-पत्नी काफी व्यथित और अंसतुलित हो गए थे। तब अपने कुल पुरोहित महर्षि गर्ग से परामर्श किया और कष्ट से छुटकारा पाने का उपाय पूछा। गुरुदेव ने जगदम्बा मां की गाथा का पारायण करने को कहा। कारागार में होने के कारण मेरे लिए यह संभव नहीं था। अत: गुरुदेव से ही यह कार्य संपन्न कराने की प्रार्थना की।

वसुदेव ने कहा-मेरी प्रार्थना स्वीकार करके गुरुदेव ने विंध्याचल पर्वत पर जाकर ब्राह्मणों के साथ देवी की आराधना-अर्चना की। विधि-विधानपूर्वक देवी भागवत का नवाह्र यज्ञ किया। अनुष्ठान पूर्ण होने पर गुरुदेव ने मुझे इसकी सूचना देते हुए कहा-देवी ने प्रसन्न होकर यह आकाशवाणी की है-मेरी प्रेरणा से स्वयं विष्णु पृथ्वी के कष्ट निवारण हेतु वसुदेव देवकी के घर अवतार लेंगे। वसुदेव को चाहिए कि उस बालक को गोकुल ग्राम के नंद-यशोदा के घर पहुंचा दें और उसी समय उत्पन्न यशोदा की बालिका को लाकर आठवीं संतान के रूप में कंस को सौंप दें। कंस यथावत् बालिका को धरती पर पटक देगा। वह बालिका कंस के हाथ से तत्काल छूटकर दिव्य शरीर धारण कर, मेरे ही अंश रूप से लोक कल्याण के लिए विध्यांचल पर्वत पर वास करेगी। गर्ग मुनि के द्वारा इस अनुष्ठान फल को सुन कर मैंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आगे घटी घटनाएं मुनि के कथनानुसार पूरी कीं और कृष्ण की रक्षा की। यह विवरण सुनाकर वसुदेव नारदजी से कहने लगे-मुनिवर ! सौभाग्य से आपका आगमन मेरे लिए शुभ है। अत: आप ही मुझे देवी भागवत पुराण की कथा सुनाकर उपकृत करें।

वसुदेव के कहने पर नारद ने अनुग्रह करते हुए नवाह्र परायण किया। वसुदेव ने नवें दिन कथा समाप्ति पर नारदजी की पूजा-अर्चना की भगवती मां की माया से श्रीकृष्ण जब गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने एक बालिका को मणि से खेलते देखा। जैसे ही कृष्ण ने बालिका से मणि ली, तो बालिका रो उठी। बालिका के रोने की आवाज को सुनकर जामवंत वहां आ पहुंचा तथा कृष्ण से युद्ध करने लगा। दोनों में सत्ताईस दिन तक युद्ध चलता रहा। देवी की कृपा से जामवंत लगातार कमोजर पड़ता गया तथा श्रीकृष्ण शक्ति-संपन्न होते गए। अंत में उन्होंने जामवंत को पराजित कर दिया। भगवती की कृपा से जामवंत को पूर्व स्मृति हो आई। त्रेता में रावण का वध करने वाले राम को ही द्वापर में कृष्ण के रूप में अवतरित जानकर उनकी वंदना की। अज्ञान में किए अपराध के लिए क्षमा मांगी। मणि के साथ अपनी पुत्री जांबवती को भी प्रसन्नतापूर्वक कृष्ण को समर्पित कर दिया।

मथुरा में कथा के समाप्त होने के बाद वसुदेव ब्राह्मण भोज के बाद आशीर्वाद ले रहे थे, उसी समय कृष्ण मणि और जांबवती के साथ वहां पहुच गए। कृष्ण को वहां देखकर सभी की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। भगवती का आभार प्रकट करते हुए वसुदेव-देवकी ने श्रीकृष्ण का अश्रुपूरित नेत्रों से स्वागत किया। वसुदेव का सफल काम बनाकर नारद देवलोक वापस लौट गए।

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